दोहा कब किस दौर में, पड़ा ज़रा भी नर्म।
मानव का कल्याण ही, इसका सच्चा मर्म।।
प्रेम किया तो फिर सखे! पूजा-पाठ फ़िज़ूल।
ढाई अाखर में निहित, सकल सृष्टि का मूल।।
दूषित था, किसने सुनी, उसके मन की पीर।
प्यास-प्यास रटते हुए, मरा कुएँ का नीर।।
सुख के दीपक जल रहे, मिटता दुख अंधेर।
दुख आँधी बन दीप को, आँखें रहा तरेर।।
ज्ञानी जन संग बैठकर, जुटा लिया कुछ ज्ञान।
पर सम्मुख हैं आपके, हम अब भी नादान।।
मानव का कल्याण ही, इसका सच्चा मर्म।।
प्रेम किया तो फिर सखे! पूजा-पाठ फ़िज़ूल।
ढाई अाखर में निहित, सकल सृष्टि का मूल।।
दूषित था, किसने सुनी, उसके मन की पीर।
प्यास-प्यास रटते हुए, मरा कुएँ का नीर।।
सुख के दीपक जल रहे, मिटता दुख अंधेर।
दुख आँधी बन दीप को, आँखें रहा तरेर।।
ज्ञानी जन संग बैठकर, जुटा लिया कुछ ज्ञान।
पर सम्मुख हैं आपके, हम अब भी नादान।।
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